आज़ादी के अमृत महोत्सव पर स्वाधीनता संग्राम महानायकों की चर्चा के बीच गांधीवादी विचारधारा का उल्लेख सर्वपरि है। गांधी और उनके विचारों के विषय में विभिन्न व्यक्तियों के दृष्टिकोण अलग हो सकते है। परंतु गांधी अपने अहिंसावादी विचार धारा के लिए हमेशा से देशवासियों के साथ साथ विदेशियों के लिए भी प्रेरणा के स्रोत रहे है। ऐसे में अक्सर देखा गया है कि खुद को महात्मा गाँधी से जोड़ने या गांधीवादी दिखने की होड़ में राजनेताओं को सफेद रंग की गांधी टोपी धारण किये देखा जा सकता है। हालांकि महात्मा गांधी की पुरानी फ़ोटो में, जो उनके विदेश प्रवास के दिनों की बताई जाती है, उस में वो हैट पहने दिखते है। जब कि सत्याग्रह की शुरुआत के बाद महात्मा गांधी की फ़ोटो में उनके सर पर किसी प्रकार की टोपी नही दिखाई देती है, वो सिर्फ एक धोती में भी नज़र आते है।(सत्य और अहिंसा का सत्य और अहिंसा का सत्य और अहिंसा का )
अहिंसा और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में देखी जाने वाली हल्की-फुल्की सफेद रंग की चौड़ी पट्टी वाली गोल टोपी के अस्तित्व में आने और इसके महात्मा गांधी से संबंधों के बारे में बहुत से लोग अभी भी यह सोचते हैं कि इस टोपी की उत्पत्ति साबरमती (गुजरात) या वर्धा (महाराष्ट्र) में हुई है जो महात्मा गांधी के जीवन से जुड़े दो अति महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन, वास्तव में गांधी टोपी की उत्पत्ति रामपुर रियासत में हुई थी। रामपुर और उसके नवाबों के इतिहास पर कई किताबें लिखने वाले 78 वर्षीय नफीस सिद्दीकी ने बताया है कि 1920 में महात्मा गांधी ने रामपुर में पहली बार होम स्पून कपड़े से बनी टोपी पहनी थी। मोटे कपड़े से बनी साधारण टोपी, शक्तिशाली ब्रिटिश शासकों के खिलाफ उनकी लड़ाई में लाखों भारतीयों के विरोध एक शक्तिशाली हथियार बन गई। यह लगभग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक चिन्ह बन गया। महात्मा गांधी की टोपी बनाने के लिए जिस कपड़े का इस्तेमाल किया गया वह खादी नहीं बल्कि होम स्पून था जिसे हिंदी में गारा कहा जाता है, खादी का कपड़ा इस के बहुत बाद दृश्य में आया।जनता के बीच उस समय तक खादी बहुत लोकप्रिय नही था।
बताया जाता है कि महात्मा गांधी ने 1920 में रामपुर रियासत का दौरा किया और पहली बार किसी कपड़े से बनी टोपी पहनी, जो धीरे-धीरे गांधी टोपी के रूप में लोकप्रिय हो गई। दरअसल रामपुर के रहने वाले मोहम्मद अली जौहर और उनके भाई शौकत, 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में देश के दो बड़े राजनीतिक नेताओं के रूप में उभरे थे। जौहर और शौकत को ‘अली ब्रदर्स’ के नाम से भी जाना जाता है। इन दोनों भाइयों ने खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व किया था जो उस समय अपने चरम पर था। गांधी जी और कांग्रेस इस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे।1920 में महात्मा गांधी मोहम्मद अली जौहर की बेटी की शादी में शामिल होने के लिए मुरादाबाद गए, जो उस समय रामपुर रियासत का ही हिस्सा था। विवाह समारोह समाप्त होने पर महात्मा गांधी ने सन् 1889 से 1930 तक रामपुर रियासत वाले नवाब सैय्यद हामिद अली खान बहादुर से मिलने के लिए कोठी खास बाग जाने का फैसला किया। नवाबों के दरबार में एक परंपरा के अनुसार मेहमानों को उनसे मिलते समय अपना सिर ढंकना पड़ता था। इस बात से महात्मा गाँधी परेशान हो गए क्योंकि वह सर ढकने के लिए कोई कपड़ा या टोपी साथ नहीं लाये थे। सिद्दीकी ने कहा कि तब रामपुर के बाजारों में महात्मा के लिए उपयुक्त टोपी खरीदने की तलाश शुरू हुई। लेकिन जिन लोगों को यह काम दिया गया था, वे उनके लिए उपयुक्त टोपी नहीं ढूंढ पाए क्योंकि उनमें से कोई भी टोपी उनके व्यक्तित्व के अनुसार सही आकार की नहीं थी। ऐसे में किसी यह महसूस किया जाने लगा कि सर ढकने के लिए उपयुक्त पहनावा न होने के कारण महात्मा गांधी की नवाब के साथ बैठक नही हो पाएगी। ऐसे में जौहर की मां, आबादी बेगम ने गाँधी जी के लिए टोपी बनाने का फैसला किया। उसने इसके लिए गारा, यानी कि एक मोटे होम स्पून कपड़े का इस्तेमाल किया, गारा खादी से अधिक कठोर होता है।
इतिहासकारों की माने तो महात्मा गांधी को यह टोपी इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने रामपुर रियासत में रहने के दौरान शायद ही कभी इसे अपने सर से हटाया हो। नुकीले सिरों और चौड़ी पट्टी वाली गांधी टोपी बाद में अहिंसा और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में उभर कर आई है, जो विभिन्न विचारधारा वाले राजनैतिक दलों के नेताओं के बीच सामान्य परिधान के रूप में पसंद किया जाता है। सन्1919 और 1921 के बीच की कई तस्वीरों में गांधी जी को इस टोपी को पहने देखा जा सकता है। बाद में कांग्रेस ने इसे मानक पोशाक बना लिया। वास्तव में, ब्रिटिश सरकार ने भी गांधी की बढ़ती लोकप्रियता को दबाने के लिए इस पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की थी। परंतु गांधी टोपी की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी सेल गाया जा सकता है कि आज भी राजनेताओं के बीच इसे धारण करने कि एक अलग ही धुन देखी जा सकती है।