भभुआ (कैमूर) : गाँव के लोग आमतौर पर बोल चाल की भाषा मे बोलते थे कि का पढ़ लिखके जज कलक्टर बन बा? और कैमूर के दिवाकर ने ठान लिया जिसके बाद काफी संघर्ष के बाद बीपीएससी द्वारा आयोजित 31 वीं बिहार न्यायिक सेवा में चयनित हो गए,दिवाकर राम को अनुसूचित जाति कोटे में15 रैंक और सामान्य कोटे में 382 रैंक प्राप्त हुए, जिसके बाद कैमूर जिले में दिवाकर का नाम लिया जा रहा है क्योंकि दिवाकर के लिए इतनी बड़ी और प्रतिष्ठित परीक्षा में सफल होना कोई आम बात नही इसके लिए सभी तरह की परिस्थितियां विपरीत थी पर पक्के दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति से दिवाकर सभी परेशानियों को पार कर के खासकर गरीब दलित पिछड़े छात्रों के लिए नजीर बन गए हैं, और साबित कर दिया कि अगर दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति हो तो व्यक्ति कोई भी नामुमकिन नहीं। चयनित होने पर बधाई देने वालों का लगा रह रहा है तांता, सभी सोशल मीडिया से लेकर लोगों की चर्चा का विषय बन गए हैं।(31 वीं बिहार न्यायिक 31 वीं बिहार न्यायिक)
दलित परिवार में जन्मे दिवाकर को बाबा साहब और महापुरुषों से मिली प्रेरणा
दिवाकर राम कैमूर जिले के चैनपुर थाना क्षेत्र के मलिक सराय गांव में दलित परिवार मेजन में और बचपन से ही बहुत शांत स्वभाव के रहे उन्होंने कहा कि बचपन से ही कुछ बड़ा करने की सोच थी हाई स्कूल से सोच बना जब सरकार द्वारा जज के बारे में बताया गया तथा गांव के लोगों के द्वारा बोलचाल की भाषा में बोला जा रहा था की का पढ़ लिखके जज कलेक्टर बन जाइब? तभी से जज बनने की इच्छा जगी 2005 में मैट्रिक पास किए इस दौरान गांव के बैकवर्ड और अनुसूचित जाति समाज में पहले लड़के थे जो पहले क्लास से पास हुए।
ट्यूशन पढ़ाया,मजदूरी की और रिक्शा भी चलाया
अच्छे नंबर से मैट्रिक पास होने के बाद गाँव के शिक्षक ने कहा कि पढ़ने में बढ़िया हो आगे इंटरमीडिएट विज्ञान या बढ़िया विषय से बेहतर पढ़ाई करो लेकिन घर की स्थिति ठीक नहीं थी तो मैंने इनकार किया लेकिन शिक्षक ने कहा कि पढ़ने वाले तो रिक्शा चलाकर पढ़ लेते हैं, तब उनके मन मे आया कि उनके गाँव के कुछ लोग वाराणसी में रिक्शा चलाते हैं, जहाँ जाकर वे अपने खर्च के अनुसार रिक्शा चलाया और कभी मजदूरी भी की इस तरह वे इंटरमीडिएट की परीक्षा 2007 में पास कर गए।
पिता और माता का निधन के बाद भी नही टूटा संकल्प, रिक्सा चलाया ट्यूशन पढ़ाया और बन गए जज
दिवाकर राम वर्ष 2007 में बिहार इंटरमीडिएट की परीक्षा पास किए लेकिन इसी वर्ष उनके पिता इस दुनिया से चल बसे, इसके बाद भी वे नही रुके, लेकिन पिता के निधन के बाद एक भाई और एक बहन को देखना था इसलिए घर वापस आ गए लेकिन वे अब भभुआ 300 रुपये प्रति माह किराए का कमरा लिए, जहाँ बच्चों को घर जाकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया जिससे 500 रुपये मिलने शुरू हुए,
500 रुपये नही होने पर स्नातक में नही ले पाए थे नामांकन
भभुआ में ट्यूशन के बाद भी घर की जिम्मेवारी और पढ़ाई में काफी परेशानी हुई, दिवाकर बतातें हैं कि उनके पास 500 रुपये नही होने पर 2 साल तक स्नातक में नामांकन नही लिए, वर्ष 2007 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद वे 2009 में स्नातक में वीर कुँवर सिंह विश्विद्यालय में नामांकन कराए। स्नातक पूरी होने पर वर्ष 2012 में दिवाकर के मित्र ने बीएचयू वाराणसी का तीन फार्म लाया गया जिसमें बीएड,बीए एलएलबी और मास कॉम का फॉर्म भरें जिसमें बीए एलएलबी की कंपीटिशन का परीक्षा दिए जिसमें निकल गया और बीए एलएलबी बीएचयू से किए।
बहन की शादी भी किए और छात्र नायक रहे
वर्ष 2012 से 2015 में बीए एलएलबी करने के बाद दिवाकर घर आए और इस दौरान सामाजिक और घर के दायित्व को निभाया,अपनी बहन की शादी भी किए तथा दलित पिछड़े छात्रों को मार्गदर्शन दिया इस दौरान छात्र नायक भी रहे। वर्ष 2017 में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी से सत्र 2017-19 में एलएलएम की पढ़ाई पूरी की। जिसके बाद कोरोना काल मे लॉक डाउन हो गया , फिर वापस आकर सेल्फ स्टडी करने लगे तथा पटना हाई कोर्ट में वकालत करने के लिए इनरोल कराए ही थे कि बीपीएससी पीसीएसजे में अंतिम रूप से चयनित हो गए।
तीसरे प्रयास में हुए चयनित
दिवाकर राम बतातें हैं कि वे तीसरे प्रयास में सिविल जज जूनियर डिवीजन के पद पर फाइनल रूप से चयनित हुए, पहले परीक्षा के दौरान उनके पिता जी का देहांत हो गया वहीँ दूसरे प्रयास के दौरान उनकी माता जी गुजर गई, दोनों प्रयास में मेंस में छटे, और आखरी तीसरे प्रयास में सफलता मिली।
इस संघर्ष में दोस्तों ने भी दिया साथ
दिवाकर के संघर्ष में दोस्तों ने भी साथ दिया, दिवाकर बतातें हैं कि कई दोस्तों ने सहयोग दिया जिसमें सबसे ज्यादा डॉक्टर दिनेश पाल जो छपरा कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं उनके द्वारा काफी सहयोग दिया गया, और हमेशा हौसला बढ़ा कर आगे बढ़ाते रहे, इस दौरान आर्थिक मदद भी किया।
दिवाकर बने दलित पिछड़े और सुविधा विहीन छात्रों के लिए बड़े प्रेरणादायक
समस्याओं से हार मानकर पीछे हटने वालों छात्रों खाकर दलित पिछड़े सुविधा विहीन छात्रों के लिए दिवाकर इस दौरान में सबसे बड़े प्रेरणा दायक हैं, आजकल प्रतियोगिता के दौरान उपलब्धि हासिल करना, दिवाकर का पूरा जीवन संघर्ष की गाथा है, इन्होंने साबित कर दिया कि अगर इंसान चाह जाए तो कोई भी काम मुमकिन नही। चाहे कितनी भी मुसीबत खड़ी हो उससे लड़कर सफलता पाई जा सकती है। आज छात्र और उनके अभिभावक इस तरह के प्रतियोगिता के लिए लाखों करोड़ों रुपये पढ़ाई पर खर्च कर रहे हैं और बिना सुविधा के सफलता काफी काबिले तारीफ है।
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