अगर आप बिहारी हैं तो इसे जरूर पढ़ें, नम हो जाएगी आपकी आंखे!

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February 21, 2023

पटना डेस्क: महापुरुषों की कोई जाति धर्म संप्रदाय नही होती और ना ही वे किसी के पेटेंट होते है। दुनिया के बड़े गणितज्ञों में शुमार किए जाने वाले पद्मश्री डा वशिष्ठ नारायण सिंह को उनकी मौत ही गुमनामी की लंबी जिंदगी से निकाल पाई और इसके बहाने तमाम बातों पर चर्चा शुरू हुई. वशिष्ठ नारायण सिंह की जिंदगी के उतार-चढ़ाव मानव जीवन की नियति के बारे में तो बताते ही हैं, साथ में यह भी बताते हैं कि कैसे मानसिक रोग और विकलांगता के बारे में हमारा सामाजिक व्यवहार भी ऐसा है जिस पर हमें सोचना चाहिेए.

बिहार के एक गरीब परिवार से निकल वशिष्ठ नारायण सिंह ने अपनी प्रतिभा के बल पर दुनिया के अकादमिक जगत में लोहा मनवाया. लेकिन फिर स्किट्सोफ्रीनिया जैसी गंभीर बीमारी की चपेट में आकर उन्हें न जाने कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा. एक जीनियस जिसमें दुनिया असीम संभावनायें देख रही थी, वह कभी कूड़े के ढ़ेर में पड़ा मिलता तो कभी गलियों में बेसुध घूमता पाया जाता. जब परिवार उन पर नजर रखने लगा. उन्हें उनके कमरे से नहीं निकलने दिया जाता था तो वे कमरे की दीवारों पर गणित के सूत्र लिखा करते थे.वशिष्ठ नारायण सिंह 2 अप्रैल 1942 को बिहार के आरा जिले के वसंतपुर गांव में जन्मे थे. घर में गरीबी थी लेकिन अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर वे रांची के प्रसिद्ध नेतरहाट विद्यालय पहुंच गए और यहीं पर उनकी स्कूल स्तर की शिक्षा हुई. इसके बाद उन्होंने पटना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया और बीएससी की पढ़ाई करने लगे. दुर्योंगों से भरी वशिष्ठ नारायण सिंह की जिंदगी में यहां एक संयोग बना. पटना साइंस कॉलेज में उनकी मुलाकात कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जान कैली से हुई. जान कैली गणितीय चर्चाओं में वशिष्ठ नारायण सिंह से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने इस होनहार गणितज्ञ को अमेरिका आने का न्योता दे दिया. कहते हैं कि आने-जाने और अमेरिका में रहने के दौरान वशिष्ठ नारायण सिंह के शुरुआती खर्च की व्यवस्था भी जान कैली ने ही की.कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी पहुंचने के साथ ही वशिष्ठ नारायण सिंह का शानदार अकादमिक सफर शुरु हो गया. 1969 में उन्होंने इसी विश्ववद्यालय से पीएचडी पूरी की. साइक्लिक वेक्टर पर की गई पीएचडी के बाद वे अमेरिका के गणितीय हलकों में मशहूर हो गए और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में सहायक प्रोफेसर बन गए.

 

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हालांकि, अब तक वशिष्ठ नारायण सिंह की प्रसिद्धि भारत और बिहार में पहुंच चुकी थी. हिंदुस्तान के आईआईटी जैसे संस्थानों में उनके चर्चे थे. 1972 में बिहार के एक सरकारी डॉक्टर की बेटी के साथ उनका विवाह हो गया. लेकिन, यही वह वक्त था जब मानसिक बीमारी ने उन्हें अपनी चपेट में लेना शुरु कर दिया था. शादी के बाद उनकी पत्नी ने उन्हें कुछ अजीब सी हरकतें करते और कुछ दवाइयां खाते देखा. दवा के बारे में पत्नी ने वशिष्ठ नारायण सिंह से पूछा तो उन्होंने कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. इस दौरान कुछ दिनों के लिए वशिष्ठ नारायण सिंह नासा से भी जुड़े रहे.1974 में वशिष्ठ नारायण सिंह ने अमेरिका से वापस लौटने का फैसला किया. ऐसा उन्होंने अपने पिता के कहने पर किया या अपनी बढ़ती मानसिक परेशानी के कारण, इस पर पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता.

अमेरिका से लौटकर वशिष्ठ नारायण सिंह ने आईआईटी कानपुर में पढ़ाना शुरु कर दिया. लेकिन, यहां शिक्षकों के आपसी मनमुटाव में उनका मन न लगा और वे टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च चले गए. बाद में वहां से वे भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता आ गए. इस अस्थिरता के पीछे और भी वजहें हो सकती हैं, लेकिन उनकी मानसिक स्थिति को इसका सबसे बड़ा कारण बताया जाता है.वशिष्ठ नारायण सिंह की मानसिक स्थिति के चलते उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर चली गईं और 1976 में दोनों का तलाक हो गया. इसके बाद उनके हालात और बिगड़ गए और उन्होंने खाना-पीना भी छोड़ दिया. उनके परिवार के लोग बताते हैं कि इस दौरान वे घर के लोगों के साथ मारपीट भी करने लगे थे. वे घर की चीजों तोड़-फोड़ भी दिया करते थे. हालात बिगड़ने पर उन्हें रांची के कांके मानसिक चिकित्सालय में दिखाया गया. जहां जांच के बाद पाया गया कि उन्हें स्किट्सोफ्रीनिया नाम का मानसिक रोग है.इसके बाद वे लंबे समय तक इस अस्पताल में भर्ती रहे. पिता के निधन के बाद वे घर आए और हालात में सुधार के चलते उन्हें अस्पताल से छुट्टी भी दे दी गई. लेकिन दो साल बाद वे एक दिन एकाएक लापता हो गए और लंबे समय तक उनका कुछ पता नहीं चला. कई सालों के बाद कुछ लोगों ने उन्हें पहचाना और उनके घर सूचना दी कि वशिष्ठ नारायण सिंह अपनी ससुराल के पास घूम रहे हैं. घरवालों ने तलाशा तो वे वहां एक कूड़े के ढेर के पास मिले.लेकिन, इन सबके बाद भी वे बिहार के समाज में एक प्रेरणादायी शख्स थे. कहा जाता था कि अगर वे बीमार न होते तो दुनिया के कई प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतते. उनके गायब होने और फिर मिलने की खबरें जब मीडिया में आईं तो बिहार सरकार ने इनका संज्ञान लिया. इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बेंगलुरु में उनके इलाज की व्यवस्था कराई.

इस दौरान उनके भाई अयोध्या प्रसाद उनकी देखभाल करते रहे. बाद में केंद्र में राजग सरकार आ जाने पर तत्कालीन भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने उनके दिल्ली में इलाज की व्यवस्था कराई. 2009 में हालात में कुछ सुधार के बाद वे एक बार फिर से अपने घर आ गए.इस दौरान उनके परिवार के आर्थिक हालात लगातार तंग होते जा रहे थे. खबरें छपने के बाद सरकारी मदद आती, लेकिन धीरे-धीरे बात फिर आई-गई हो जाती. इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि किस तरह से वशिष्ठ नारायण सिंह के निधन के बाद उनके परिवार को एंबुलेंस के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ी. हमारा राजनीतिक अभिजात्य इस तरह की चीजों के प्रति कितना संवेदनशील होता है कि इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वशिष्ठ नारायण सिंह के निधन की चर्चा सोशल मीडिया में होने पर बिहार के कुछ स्थानीय नेताओं ने उन्हें जदयू का नेता समझकर श्रद्धांजलि दे डाली थी.वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे प्रतिभाशाली गणितज्ञ की जिंदगी की सारी परेशानियां उनकी मानसिक बीमारी के कारण आईं. लेकिन, दुनिया में मानसिक रोगों से ग्रस्त कई शख्सियत अपनी मानसिक बीमारियों से उबरकर सामान्य जिंदगी बिता चुके हैं. अमेरिका के मशहूर गणितज्ञ जान नैश भी स्किट्सोफ्रीनिया की चपेट में आ गए थे. लेकिन, वहां का अकादमिक जगत और सरकार पुरजोर तरीके से उनके साथ बनी रही. जान नैश की मानसिक दशा बिगड़ने लगी तो भी यूनिवर्सिटी ने उनकी नौकरी बरकरार रखी और इस प्रतिभाशाली गणितज्ञ को खराब मानसिक दशा के दौरान भी रिसर्च के लिए वेतन मिलता रहा. लेकिन, वशिष्ठ नारायण के मामले में ऐसा नहीं हुआ. उनकी बिगड़ती मानसिक दशा में उन्हें कई नौकरियां बदलनी पड़ीं और अंत में उनकी नौकरी जाती रही.जॉन नैश के इलाज की बेहतरीन व्यवस्था की गई और धीरे-धीरे वे काफी हद तक अपनी बीमारी से उबर भी पाए. इसी दौरान उन्हें अपने उस शोध के लिए नोबेल मिला जो उन्होंने बीमारी से पहले किया था. जॉन नैश के जीवन पर हॉलीवुड फिल्म ‘ब्यूटीफुल माइंड’ एक ऐसी प्रेम कथा है जिसमें दिखाया गया है कि किस तरह से उनकी पत्नी ने उनकी बीमारी के दौरान उनका साथ दिया.लेकिन, वशिष्ठ नारायण सिंह के मामले में यह सुखद पक्ष नहीं था. उनकी नौकरी चली गई और यूनिवर्सिटी या सरकार की तरफ से उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं किया गया. यह बताता है कि हम प्रतिभाओं का सम्मान किस तरह करते हैं.

 

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वशिष्ठ नारायण सिंह के गायब हो जाने के बाद सरकारें मीडिया के दबाव में जागीं तो, फिर भी उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने जैसी सुविधा ही मिली जो समय के साथ घटती ही जाती थी.केवल सरकारें ही नहीं अकादमिक दुनिया और बुद्धजीवियों ने भी उनसे मुंह मोड़ लिया था और उनकी तरफ से भी वशिष्ठ नारायण के मामले में सरकार पर शायद ही कोई दवाब बनाया गया. यह रवैया दरअसल हमारे सामाजिक पक्ष की ओर भी इशारा करता है कि हम मानसिक रोगियों के प्रति कितने असंवेदनशील हैं. सभी मानसिक रोगियों के मामले में इस तरह के हस्तक्षेप की उम्मीद की भी नहीं जा सकती. लेकिन वशिष्ठ नारायण सिंह तो असाधारण प्रतिभा के धनी थे और बुद्धिजीवी वर्ग उनके नाम और काम से परिचित भी था. जब समाज का सोचने-विचारने वाले तबके के लिए इस महान प्रतिभाशाली गणितज्ञ का मानसिक रोग और देखभाल चिंता का विषय नहीं रही तो एक सामान्य आदमी के लिए किसी बड़े कदम की उम्मीद कैसे की जा सकती है. सब कुछ सरकारों पर ही नहीं छोड़ा जा सकता. कुछ समाज की भी जिम्मेदारी है. और सरकारें भी आखिरकार समाज के दबाव के चलते ही काम करती हैं.

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